हद और बेहद को पार करके ही साधु तन-मन से ऊपर उठ जाता है ।
साधु और योगिजन स्वयं (आत्म-तत्व) को परमात्मा के साथ एकाकार कर लेते हैं ।
फिर स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब वर्ण और आश्रम जैसी बातोँ का मतलब ही खत्म हो जाता है !
वह पंचमाश्रमी “अवधूत” हो जाता है, परमात्मा इंसान को बाहरी तौर पर नहीँ, बल्कि कर्मोँ से परखता है ।